अश्वगंधा
वर्णन
यह एक काष्ठीय झाड़ी है, जिसकी ऊंचाई 170 सेंटीमीटर तक होती है। यह टमाटर की तरह होता है, जो उसी के परिवार का सदस्य है। इसमें लाल और पीले रंग के फूल लगते हैं। हालांकि इसे फल आकार में बेरी की तरह होते हैं। अश्वगंधा, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश में ऊगाए जाते हैं। मध्यप्रदेश में इसकी व्यवसायिक खेती होती है। इस से त्वचा गी रहती है।www,midiy
औषधीय उपयोग
आयुर्वेद में अश्वगंधा को रसायन माना जाता है, जिसका उपयोग शारीरिक क्षमता और आरोग्यवृद्धि में किया जाता है। यह एक विषनाशी बूटी है जो स्नायुतंत्र पर कार्य करता है। आयुर्वेदिक औषधि के रूप में इसकी जड़ और फलों का इस्तेमाल होता है। आयुर्वेद में इससे अवांछनीय घटकों को अलग करने के लिए इसे दूध में उबालकर सुखा लिया जाता है। इसके फलों का इस्तेमाल पनीर बनाने के लिए दूध जमाने में भी किया जाता है। संस्कृत में अश्वगंधा का अर्थ अश्व (घोड़े) का गंधवाला होता है। इसका यह नाम शायद इसलिए हैं कि इसकी जड़ का गंध घोड़े के मूत्र की गंध के जैसा होता है। यह सोमनीफेरा प्रजाति के अंतर्गत आता है। सोमनीफेरा का अर्थ निद्रा-पैदा करने वाला होता है। लेकिन इसके इस्तेमाल बलवर्द्धन, यौनक्षमता में वृद्धि और शरीर में प्रतिरोधक क्षमता वृद्धि के लिए होता है। इसलिए कुछ लोग इसे भारतीय जिनसेंग कहते हैं। चीन में जिनसेंग का इस्तेमाल यौनक्षमता में वृद्धि के लिए किया जाता है। सात अमेरिकी और चार जापानी कंपनियों ने अश्वगंधा से तैयार फॉमूलों के पेटेंट के लिए अर्जी दी है, जबकि अश्वगंधा के फल, पत्तियों, जड़ों और बीजों का इस्तेमाल यौनक्षमता में वृद्धि, मूत्रोत्पादक और स्मृति क्षय के ईलाज के लिए वर्षों से होता रहा है। जापानी पेटेंट आवेदन, बूटी का इस्तेमाल त्वचा रोगों में मरहम तथा प्रजनन क्षमता में वृद्धि को लेकर है। अमेरिकी कंपनी ने भी अश्वगंधा के इसी गुण की खोज के लिए पेटेंट का दावा किया है। एक अन्य अमेरिकी कंपनी, द ऩ्यू इंग्लैड डीकोनेस हॉस्पीटल ने गठिया से मिलते-जुलते रोग का ईलाज अश्वगंधा से सफलतापूर्वक कर लेने का दावा किया है। अश्वगंधा तेल, अश्वगंधा, बादामगिरी और गुलाबजल से तैयार किया जाता है, जिसका इस्तेमाल चेहरे की सुंदरता बढ़ाने में किया जाता है, इसका आंतरिक उपयोग वर्जित है।
सक्रिय घटक
निम्नलिखित रसायनिक घटक अश्वगंधा की जड़ में उपस्थित रहते है, जब तक अन्यथा न कहा जाए. इसलिए इसकी जड़ का इस्तेमाल ज्यादा होता है। एनाफेरीन (एल्केलॉइड), एनाहाइग्रीन (एल्केलॉइड), बीटा-सिस्टेरॉल, क्रोजेनिक एसिड (सिर्फ पत्तियों में), सिस्टेन (फलों में), कस्कोहाइग्रीन (एल्केलॉइड), लौह-तत्व, सियूडो-ट्रोपिन (एल्केलॉइड), स्कोपोलेटिन, सोमिनिफेरीनीन (एल्केलॉइड) सोमनीफेरीनीन (एल्केलॉइड), ट्रोपैनॉलस, विथेफेरीन-ए (स्टेरॉइडल लैक्टिन), वेथेनीन, विथेनेनीन, वेथेनॉलाइड्स, ए-वाई (स्टेरॉइडल लैक्टिन), एनाफेरीन, एनाहाइग्रीन, सिस्टरॉल, क्लोरोजेनिक एसीड (पत्ती में) आदि. अश्वगंधा के मुख्य अवयव एल्केलॉइड्स और स्टेरॉइडल लैक्टॉन है। अन्य घटकों में विथनीन.
भेषज विज्ञानीय प्रभाव
अश्वगंधा में कैंसर-कारक कोशिकाओं को खत्म करने की क्षमता होती है।
दुष्प्रभाव
इससे मिचली आ सकती है। नेत्रदोष उत्पन्न हो सकता है।
अन्य प्रजातियों
अश्वगंधा की बीस से ज्यादा प्रजातियां, भारत, उत्तरी अफ्रीका, मध्यपूर्व और भूमध्यसागरीय क्षेत्र को सूखे वाले भागों में पाई जाती है। जलवायु: अश्वगंधा के फसल उत्पादन के लिए शुष्क जलवायु उत्तम रहती है जिसे ६५० से ७५० मिमी वर्षा वाले क्षेत्रों में भली-भाँति उगाया जा सकता है। ऐसे क्षेत्रों में इसकी जड़ें उच्च गुणवत्ता वाली मिलती हैं जाङों में इसकी जड़ों का विकास तीव्र गति से होता है।
भूमि:
वैसे तो अश्वगंधा को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है, परन्तु उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मृदा इसके लिए सर्वोत्तम मानी गयी है भूमि का पी - एच मान ७.५-८.० होना चाहिए हल्की मृदाओं में इसके पौधों का विकास एवं बढकर दोनों अच्छी होती हैं और जङों का विकास भी अच्छा होता है खेत की तैयारी- रबी की फसल कट जाने के बाद मानसून आने पर खेत की तैयारी की जाती है पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें उसके उपरान्त एक- दो बार कल्टीवेटर से आर - पार जुताई करें अन्तिम जुताई के उपरान्त पाटा अवश्य लगायें ताकि मिट्टी भुरभुरी एवं समतल हो जाये पिछली फसल के अवशेष, खरपतवार और ईट- पत्थरों को निकाल दें
प्रजातियाँ:
आमतौर पर इसकी स्थानीय किस्में ही उगाई जाती हैं जिनसे न केवल उपज कम मिलती है, बल्कि जङों की गुणवता भी निम्न कोटि की होती है अब अश्वगंधा की कुछ उन्नत किस्में भी उपलब्ध हैं अत: उन्हें ही उगाना चाहिए जिनके लक्षणों का उल्लेख नीचे किया गया है जवाहर अश्वगंधा २०- इस किस्म से ४३२ किलोग्राम सूखी जङें और १५६ किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है इसकी सूखी जङों में ०.४१ प्रतिशत क्षाराभ मिलते हैं डब्ल्यू० एस० ९०-१००- इस किस्म से ५४८ किलोग्राम सूखी जङें, ५४६ किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है यह किस्म पत्ता धब्बारोधी किस्म है डब्ल्यू० एस० ९०-१३५- इश किस्म से ५२३ किलोग्राम सूखी जङें, १८१ किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर मिल जाते हैं यह किस्म भी पत्ता धब्बारोधी किस्म है इसकी सूखी जङों से ०.४५ प्रतिशत क्षाराभ प्राप्त हो जाते हैं डब्ल्यू० एस० ९०-१३४- इसकी सूखी जङों में ०.२६ प्रतिशत क्षाराभ पाये जाते हैं डब्ल्यू० एस० ९०-११७- डब्ल्यू० एस० ९०-१२५- इसकी सूखी जङों में ०.२७ प्रतिशत क्षाराभ पाये जाते हैं
बोआई:
यह खरीफ को पिछेती फसल है इसलिए इसे अगस्त के दूसरे या तीसरे सप्ताह में बोना चाहिए वैसे इसे सितम्बर के प्रथम सप्ताह में भी बोया जा सकता है, परन्तु इसके बाद बोआई करने से उपज में भारी कमी हो जाती है बीज की मात्रा- अश्वगंधा के बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि उसे किस विधि से होया जा रहा है यदि इसकी बुआई छिटकवाँ विधि से की जा रही है तो उसमें १०-१५ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर लगता है गुजरात के कृषक तो २०-२५ किलोग्राम तक डाल देते हैं, जबकि इसकी पौध तैयार करने में मात्र ४-५ किलोग्राम बीज ही पर्याप्त होता है बीजोपचार - बीज को बोने से पूर्व किसी फफूँदीनाशक दवा से उपचारित कर लेना चाहिए डायथेन एम-४५ की ३ ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करके बोना चाहिए बोआई की विधि - अश्वगंधा को बोने के लिए निम्न दो विधियाँ अपनायी जाती हैं- छिटकवाँ विधि- चूँकि अश्वगंधा के बीज बारीक होते हैं अत: उनमें ५० प्रतिशत रेत मिलाकर तैयार खेत में छिटक दिया जाता है उसके उपरान्त हल्का पाटा चलाया जाता है इस पद्धति में बीज हल्का होने के कारण पानी के साथ बहकर एक जगह पर इकट्ठा हो जाते हैं पौधों में कृषि कार्य करने में कठिनाई होती है नर्सरी में पौध तैयार करना- इस विधि में ४-५ किलोग्राम बीज नर्सरी में जुलाई के महीने में बोया जाता है ६-७ दिन बाद पौधे निकल आते हैं और ६ सप्ताह में पौधे लगाने योग्य हो जाते हैं रोपाई- गुजरात में आमतौर पर २५ गुणा २५ सेमी की दूरी पर रोपाई की जाती है अन्य क्षेत्रों में यदि भूमि कम उर्वर हो तो उशमें ६० गुणा ६० सेमी की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए यदि ऊँची क्यारियों में रोपाई की जाती है, जङों की उपज अधिक मिलती है
खाद एवं उर्वरक:
आमतौर पर इसमें खाद एवं उर्वरकों का उपयोग नहीं किया जाता है इसलिए इसकी कम उपज प्राप्त होती है इसकी अधिक उपज लेने के लिए संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों को उपयोग करना चाहिए कम उपजाऊ भूमि में ५-१० टन गोबर को खाद, १५ किलोग्राम नाइट्रोजन और १५ किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से अवश्य डालें
सिंचाई
आमतौर पर अश्वगंधा को कोई सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं होती है यदि काफी लम्बे समय तक वर्षा न हो तो आवश्यकतानुसार एक- दो सिंचाई कर देनी चाहिए
खरपतवार नियंत्रण
अश्वगंधा के साथ विभिन्न प्रकार के खरपतवार उग आते हैं जो फसल के साथ नमी, पोषक तत्वों, स्थान, धूप आदि के लिए प्रतिस्पर्द्धा करते हैं जिसके फलस्वरूप पौधों के विकास एवं बढवार पर प्रतिकूल प्रभाव पङता है अत: खरपतवार नियन्त्रण हेतु आवश्यकतानुसार निराई-गुङाई करते रहें उपसीमान्त मृदाओं में बीज बोने के २५-३० दिन बाद एक बार निराई - गुङाई करने से काम चल जाता है इसी समय पौधों को छितरा कर देना चाहिए परीक्षणों से पता चला है कि आइसोप्रोटुरान (Isoproturon) 0.5 किलोग्राम, ग्लाइफोसेट (Glyphosate) 1,50 किलोग्राम सक्रिय तथा ट्राईफ्लूरालिन (Trifluralin 48 % E.C.) ४ लीटर सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से डालने से खरपतवारों का प्रभावशाली ढंग से नियन्त्रण हो जाता है और जङों की उपज में भी वृद्धि हो जाती है
खुदाई
रोपण को १८० दिन बाद अश्वगंधा की खुदाई करने से जङें अधिकतम मिलती हैं क्योंकि उनके आकार में वृद्धि हो जाती है क्षाराभ की मात्रा भी अधिकतम मिलती है पूरे पौधों को उखाङ लिया जाता है फिर जङों को पौधों से अलग कर लिया जाता है तथा फिर उन्हें सूखा लिया जाता है जङों का वर्गीकरण - सुखाने की सुविधा के लिए जङों को ७-१० सेमी लम्बाई के टुकङों में काट लिया जाता है और जङों का श्रेणीकरण (Grading) कर लिया जाता है जो निम्नवत् होता है- ए श्रेणी- जङों की लम्बाई ७ सेमी, व्यास १.०-१.५ सेमी, भरी हुई चमकदार एवं पूरी सफेद बी श्रणी- जङों की लम्बाई ५ सेमी, व्यास १.० सेमी ठोस, चमकदार और सफेद सी श्रेणी- जङों की लम्बाई ३-४ सेमी, व्यास १ सेमी ठोस
उपज:
अश्वगंधा की उपज भूमि की उर्वरा शक्ति, उसकी उगाई जाने वाली किस्म, फसल की देखभाल पर निर्भर करती है यदि अश्वगंदा की खेती उन्नत ढंग से की जाये तो प्रति हेक्टेयर ३-४ क्विंटल सूखी जङें और ५०-७५ किलोग्राम बीज की प्राप्ति हो जाती है इसकी जङें 400-500 की 100 गा्म दर से बिकती हैं, जबकि इसका बीज ५० रूपये प्रति किलोग्राम बिक जाता है