चुआड़ विद्रोह
झारखंड के आदिवासियों ने रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1769 में जो आन्दोलन आरम्भ किया उसे चुआड़ विद्रोह कहते हैं। यह आन्दोलन 1805 तक चला। स्थानीय आदिवासी लोगों को उत्पाती या लुटेरा के अर्थ में सामूहिक रूप से ब्रिटिशों द्वारा चुआड़ कह कर बुलाया गया। हाल के कुछ आंदोलनों में इसे आपत्तिजनक मानते हुए इस घटना को चुआड़ विद्रोह के बजाय जंगल महाल स्वतंत्रता आन्दोलन के नाम से बुलाये जाने का प्रस्ताव भी किया गया है।[1] चुआड़ लोग संपादित करें चुआड़ अथवा चुहाड़ का शाब्दिक अर्थ लुटेरा अथवा उत्पाती होता है। जब 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल जिला में सर्वप्रथम मालगुजारी वसूलना शुरू किया गया, तब अंग्रेजों के इस षडयंत्रकारी तरीके से जल, जंगल, जमीन हड़पने की गतिविधियों का सन् 1769 ई. में कुड़मी समाज के लोगों द्वारा रघुनाथ महतो के नेतृत्व में सबसे पहला विरोध किया गया और ब्रिटिश शाशकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया। जब अंग्रेजों ने पूछा, ये लोग कौन हैं, तो उनके पिट्ठू जमींदारों ने घृणा और अवमानना की दृष्टि से उन्हें 'चुआड़' (बंगाली में एक गाली) कहकर संबोधित किया, तत्पश्चात उस विद्रोह का नाम 'कुड़मी विद्रोह' के स्थान पर 'चुआड़ विद्रोह' पड़ा।झारखंड के आदिवासियों ने रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1769 में जो आन्दोलन आरम्भ किया उसे चुआड़ विद्रोह कहते हैं। यह आन्दोलन 1805 तक चला।
स्थानीय आदिवासी लोगों को उत्पाती या लुटेरा के अर्थ में सामूहिक रूप से ब्रिटिशों द्वारा चुआड़ कह कर बुलाया गया। हाल के कुछ आंदोलनों में इसे आपत्तिजनक मानते हुए इस घटना को चुआड़ विद्रोह के बजाय जंगल महाल स्वतंत्रता आन्दोलन के नाम से बुलाये जाने का प्रस्ताव भी किया गया है।[1]जब बाउड़ी जनगोष्ठी को चुआड़ बिद्रोह शब्द से कोई आपत्ति नही है,जिसे आज भी चुआड़ कहकर पुकारा जाता है।बाउड़ी जनगोष्ठी के लोगों ने ही चुआड़ बिद्रोह किया था।
चुआड़ लोग
चुआड़ अथवा चुहाड़ का शाब्दिक अर्थ लुटेरा अथवा उत्पाती होता है। जब 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल जिला में सर्वप्रथम मालगुजारी वसूलना शुरू किया गया, तब अंग्रेजों के इस षडयंत्रकारी तरीके से जल, जंगल, जमीन हड़पने की गतिविधियों का सन् 1769 ई. में कुड़मी समाज के लोगों द्वारा रघुनाथ महतो के नेतृत्व में सबसे पहला विरोध किया गया और ब्रिटिश शाशकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया। जब अंग्रेजों ने पूछा, ये लोग कौन हैं, तो उनके पिट्ठू जमींदारों ने घृणा और अवमानना की दृष्टि से उन्हें 'चुआड़' (बंगाली में एक गाली) कहकर संबोधित किया, तत्पश्चात उस विद्रोह का नाम 'कुड़मी विद्रोह' के स्थान पर 'चुआड़ विद्रोह' पड़ा।
1764 में बक्सर युद्ध की जीत के बाद अंगरेजों का मनोबल बढ़ गया। अंग्रेज कारीगरों के साथ किसानों को भी लूटने लगे। 12 अगस्त 1765 को शाह आलम द्वितीय से अंगरेजों को बंगाल, बिहार, ओड़िशा व छोटानागपुर की दीवानी मिल गयी। उसके बाद अंगरेजों ने किसानों से लगान वसूलना शुरू कर दिया।
1766 में अंगरेजों ने राजस्व के लिए जमींदारों पर दबाव बनाया, लेकिन जमींदारों ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की। नतीजा यह हुआ कि किसान अंगरेजी जुल्म के शिकार होने लगे। स्थिति अनियंत्रित होने लगी, तब चुआड़ आंदोलन की स्थिति बनी।
रघुनाथ महतो द्वारा आन्दोलन का नेतृत्व
अंगरेजों ने चुआड़ की जमीन छीन कर जमींदारों के हाथों बेचना शुरू कर दिया। इन्हें शारीरिक यातना दी जाने लगी। तंग आकर कुडमी व आदिवासियों ने रघुनाथ महतो के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया। इसी का नाम चुआड़ आंदोलन पड़ा। रघुनाथ महतो बचपन से ही देशभक्त व क्रांतिकारी स्वभाव के थे।
1769 में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन उन्होंने नीमडीह गांव के एक मैदान में सभा की। यही स्थान रघुनाथपुर के नाम से जाना गया। रघुनाथ महतो के समर्थक 1773 तक सभी इलाके में फैल चुके थे। चुआड़ आंदोलन का फैलाव नीमडीह, पातकुम, बड़ाभूम, धालभूम, मेदनीपुर, किंचुग परगना (वर्तमान सरायकेला खरसांवा) राजनगर गम्हरिया ओद तक हो गया। उन्होंने अंगरेजों के नाक में दम कर रखा था।
पांच हजार से अधिक की संख्या में नीमूधल के किले पर आक्रमण किया गया, जिसके बाद सैनिक भाग कर नरिंसंहगड़ चले गये। चुआड़ आंदोलन की अक्रामकता को देखते हुए अंग्रेजी सरकार ने छोटानागपुर को पटना से हटा कर बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया। 1774 में विद्रोहियों ने किंचुग परगना के मुख्यालय में पुलिस फोर्स को घेर कर मार डाला।
इस घटना से अंगरेजों ने किंचुग परगना पर अधिकार करने का विचार छोड़ दिया। 10 अप्रैल 1774 को सिडनी स्मिथ ने बंगाल के रेजीमेंट को विद्रोहियों के खिलाफ फौजी कार्रवाई करने का आदेश दे दिया।
आंदोलन का केंद्र - सिल्ली
सन 1776 में आंदोलन का केंद्र रांची जिले का सिल्ली बना। पांच अप्रैल 1778 को रघुनाथ महतो के जंगलों में अपने साथियों के साथ सभा कर रहे थे।
वहां रामगड़ में अंगरेजी छावनी पर हमले की योजना बन रही थी। इसी बीच अंगरेजी सेनाओं ने रघुनाथ महतो एवं उनके सहयोगियों को चारों ओर से घेर कर धोखे से गोलियां चलायी। दोनों ओर से काफी देर तक घमासान हुआ। रघुनाथ महतो को भी गोली लगी।
यहां सैकड़ों विद्रोहियों को गिरफ्तार कर लिया गया। यहां कई लोग मारे गये। आज भी आंदोलन के कई साक्ष्य रघुनाथपुर, घुटियाडीह, सिल्ली व लोटा गांव में मौजूद हैं। बड़े बुजुर्ग आज भी शहीद की कहानी बताते हैं।
विद्रोह की पृष्ठभूमि
इलाहाबाद की संधि (1765) में दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दी।[2] जंगल महाल के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र मराठा आक्रमण के बाद से ही काफ़ी ढीले-ढाले तरीके से शासित था और स्थानीय जमींदार, जिन्हें राजा कहा जाता था, कर वसूल कर वर्ष में एक बार केन्द्रीय सत्ता को भेजते थे।[3][4] कम्पनी द्वारा दीवानी अधिकार प्राप्त करने के बाद से ही इसकी नीति अधिकतम संभव कर वसूली की रही। इस उद्देश्य में स्थानीय व्यवस्था को बाधक मानकर नयी प्रणालियाँ और नियामक (रेगुलेशन) लगाये जाने शुरू हुए और 1765 के बाद एक बिलकुल नए किस्म के कर युग का आरंभ हुआ जिससे स्थानीय व्यवस्था, स्थानीय लोग और जमींदार भी बर्बाद होने लगे।[5]
इस प्रकार स्थानीय चुआड़ (या पाइक) लोगों की जमीनों पर से उनके प्राकृतिक अधिकार समाप्त किये जाने से उनमें असंतोष व्याप्त था और जब उन्होंने विद्रोह किया तो उन्हें बेदखल किये गए जमींदारों का नेतृत्व भी प्राप्त हो गया।[6]
विद्रोह
साल 1799 के आरंभ में मिदनापुर के आसपास के तीन स्थानों पर चुआड़ लोग संगठित हुए: बहादुरपुर, सालबनी और कर्णगढ़।[7] यहाँ से उन्होंने गोरिल्ला हमले शुरू किये। इनमे से कर्णगढ़ में रानी शिरोमणि[8] का आवास था जिन्होंने इनका सक्रिय नेतृत्व किया। तत्कालीन कलेक्टर के लिखे पत्र के अनुसार, चुआड़ विद्रोह बढ़ता गया और फ़रवरी 1799 तक मिदनापुर के आसपास के कई गाँवो के सतत विस्तृत इलाके पर इनका कब्ज़ा हो गया। मार्च में, रानी ने तकरीबन 300 विद्रोहियों के साथ हमला किया और कर्णगढ़ के गढ़ (स्थानीय किले) में कंपनी के सिपाहियों के सारे हथियार लूट लिए।[9] हमलों और लूट का यह क्रम दिसम्बर 1799 तक चलता रहा।[10]
मूल्यांकन
चुआड़ विद्रोह का प्रथम इतिहास जे॰ सी॰ प्राइस ने लिखा, "दि चुआड़ रेबेलियन ऑफ़ 1799" के नाम से।[11] परवर्ती इतिहासकारों ने भी ब्रिटिश दस्तावेजों के आधार पर इस विद्रोह का वर्णन किया है।
परवर्ती इतिहासकारों में ए॰ गुहा[1] और उनके हवाले से एडवर्ड सईद[12] जैसे लेखकों ने इसे गैर-तटस्थ लेखन के रूप में भी देखा है। झारखण्ड स्टूडेंट फेडरेशन द्वारा प्रकाशित एक पैम्फलेट में चुआड़ शब्द को नकारात्मक माना गया और इस विद्रोह को "जंगल महाल का स्वतंत्रता आन्दोलन" के नाम से पुकारे जाने का प्रस्ताव भी किया गया।[1]
सन्दर्भ
- Sangeeta Dasgupta 2011, पृ॰ 214.
- Peter James Marshall 2005, पृ॰ 155.
- Nitish Sengupta 2011.
- Gouripada Chatterjee 1986, पृ॰ 8-12.
- Gouripada Chatterjee 1986, पृ॰ 13.
- Gouripada Chatterjee 1987, पृ॰ 70.
- Gouripada Chatterjee 1986, पृ॰ 29.
- Gouripada Chatterjee 1986, पृ॰ 30.
- Gouripada Chatterjee 1986, पृ॰ 32.
- Gouripada Chatterjee 1986, पृ॰ 34.
- Nicholas B. Dirks; Geoff Eley; Sherry B. Ortner (1994). Culture/power/history: A Reader in Contemporary Social Theory. Princeton University Press. पपृ॰ 368–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-691-02102-3.
- Edward W. Said 2013.
स्रोत ग्रन्थ
- Chittaranjan Kumar Paty (1 January 2007). Forest, Government, and Tribe. Concept Publishing Company. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-8069-406-6.
- Gouripada Chatterjee (1986). Midnapore, the Forerunner of India's Freedom Struggle. Mittal Publications. GGKEY:YPF5GC36B8B.
- Gouripada Chatterjee (1987). History of Bagree-Rajya (Garhbeta): With Special Reference to Its Anti-British Role, from Late 18th Century Till the Present Times. Mittal Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7099-014-7.
- Daniel J. Rycroft; Sangeeta Dasgupta (29 March 2011). The Politics of Belonging in India: Becoming Adivasi. Taylor & Francis. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-136-79115-4.
- Edward W. Said (4 July 2013). Reflections On Exile: And Other Literary And Cultural Essays. Granta Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-84708-921-2.
- Nitish Sengupta (19 July 2011). Land of Two Rivers: A History of Bengal from the Mahabharata to Mujib. Penguin Books Limited. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-8475-530-5.
- Peter James Marshall (2005). The Making and Unmaking of Empires: Britain, India, and America C.1750-1783. Oxford University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-927895-4.