वीर रस

वीर रस, नौ रसों में से एक प्रमुख रस है। जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है।[1][2][3]

उदाहरण

साजि चतुरंग सैन अंग मैं उमंग धारि,
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है ।
भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,
नदी नद मद गैबरन के रलत हैं ॥
बुंदेलों हरबोलो के मुह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी ।

सन्दर्भ

  1. वीर रस की कविता
  2. ओझा, दसरथ (1995). हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8170284023. अभिगमन तिथि 8 फरवरी 2016.
  3. गणेश, कुमार. UGC-NET/JRF/SLET ‘Hindi’ (Paper III): - पृष्ठ 22. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8174823662. अभिगमन तिथि 8 फरवरी 2016.

बाहरी कड़ियाँ

वीर रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण

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